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Sunday, April 05, 2009

मनुष्यता

मनुष्यों के इस जंगल में मनुष्यता कहाँ गई।
सभ्यता के इस आडम्बर में, चंचलता कहाँ गई।

मस्तिक्ष के इस जाल में, कई कई विचित्रता।
हर कहीं विवशता और हर कहीं अशक्तता।

किंतु परन्तु के चक्रव्यूह में, कई कई प्रश्न है।
परस्तिथि की धुरी पर घूमता ये विश्व है।

अंतर्मन के द्वंद में जीतता क्यों कंस है।
कृष्ण की आराधना में लीन फ़िर भी भक्त है।

विश्वास को लिए हुए, निर्भय निडर ये रक्त है।
विज्ञान से अज्ञान हो चंचल मद मस्त है।

3 comments:

fursat said...

My Hindi is not very good but some of the lines that I did got were very good.

Anindya Sharma said...

Very good siddhartha! I am becoming a fan of yours :).

poem is very relevant and hits right at the point which we are trying to ignore each moment in our daily lives.

:D

sid said...

@Anindya,

I write when I can't avoid to face a few things in life.
Thanks for the lovely words though :-)