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Sunday, May 31, 2009

देश प्रेम

देश प्रेम से औत-प्रोत हो, एक बालक ने ललकारा,
जय हिंद और वंदे मातरम का नारा उसने हुंकारा।

भरी सभा में राष्ट्र गान का जब सबको आभास हुआ,
पढ़े लिखो की इस नगरी में , लोगो का अपमान हुआ।

उस सभा के ज्ञाता ने फ़िर इस बालक को समझाया,
और उसके बाल मन से बापू का जादू झदवया।

इन नाहक की बातो से किस का मतलब भरता है,
इस सिस्टम का हर पहिया बस पैसे से ही चलता है।

तुम भी बहती गंगा में अपना गमछा साफ़ करो,
कुछ और न बन सके तुमसे तो भारत का निर्माण करो।

बालक बोला अध्यापक से, तुम तो कुछ उल्टा पाठ पढ़ाआते हो,
अब से शिक्षा लूँगा उनसे, जो काम की बात बताते हो।

भारत माता की रक्षा पर तुमने व्यर्थ ही ज्ञान दिया,
और अपनी बातो से मेरा वक्त बरबाद किया।

बढ़ना है मुझको आगे, अपने सपने पूरे करने है,
रास्ता चाहे जो भी हो, मुझे हासिल लक्ष्य सभी करने है।

इस तरह बालक की दुविधा का अंत हुआ,
शामिल हुआ वो भीड़ में और नैतिकता का ध्वंस हुआ।


... सिद्धार्थ

One Crazy Night

Long time back, when I was an engineering student, a funny thing happened. I never thought I would write anything about the incident. However, after almost10 years, when I look back at that crazy night, I still feel the goosebumps.
My dad had been transferred to "Maihar", a sweet religious town in MP and my family had shifted there, leaving me alone. As we had a big house, it was decided that the drawing room will be packed with all the furniture and I can use the other rooms.
Suddenly, the house started to seem like a dungeon, with I being a lonely warrior prince. Well, I still have that new ambience phobia and it takes me a day or two to adjust to the new conditions. So, for a first few days, I slept with all the lights on as it made me feel that there are others in the house.

Oh wait, Did I just say "The Others"? Well, I came back from college at around 5 pm, dozed off at the bed for a while. After that I didn't kept track of time, I was lying amid a mess of magzines and novels. I kept reading till I fell asleep, got up at around 9 , ate my not so finger-licking tiffin and then started to feel bore. So, I picked up a novel and kept reading for a long time. I am not sure of the exact time when my eyes pulled on the shutter.

As I was asleep, suddenly I heard a strange sound. The sounds was so clear that I cannot deny hearing it and jumped awake in my bed. The sound was certainly familiar. No, it wasn't the voice of any person I knew but it was the sound that an ornament makes. The ornament which is so dear to gals and ghosts!!

Yes, I am talking about Payal, the sound I heard, was certainly a Payal's sonorous sound. However, at these late hours, this sonorous sound made me sweat. However, I decided to act brave, took up the torch and looked beneath my bed.

My braveness set new records when I decided to open the locked room with all the furniture stuffed into it. Certainly reminded me of the Ramsay movies and I never thought, I would be in the same situation.

With Hanuman Chalisa on my lips, I unlocked the room and opened the light. My clenched fists were relaxed when I found no one there. I came back to my study cum dining cum leaving cum bedroom and looked at the clock. It was 4 am. I felt further relaxed that with in couple of hours, it will be dawn and no ghost can dare to fight with me in the daylight. On a more practical note, I had a tution at 6 am which I loved to attend. So, with just 2 more hours to go, I decided not to sleep again and keep the ghosts at bay.


Those unlucky souls got a tough customer that night!! I still laugh at the stupidity of my thoughts but the sounds of that payal was clear that I can still feel it ringing in my ears

Friday, May 29, 2009


बैठे रहे हम सोचते, मौका मिले तो उठे,
जब भी उठते, मौके हजार मिलते।

Thursday, May 28, 2009

भौतिक विक्षिप्तता

आतुरता है हर जीव को की दे पटक सभ्यता की नींव को,
नही किंचित ही विचलित वो, कहे ख़ुद को फ़िर भी सभ्य वो।

जंगल के असभ्य भूके शेर, कभी नही करते अपनों से बैर,
वो भी इतना अन्तर जानते है, अपनों की कीमत पहचानते है।

कुछ लोग नित नए खेल रचते है, माँ-बाप को ही वो ठगते है,
विश्वास की क्या बात करे, जब लेकर खंजर वो चलते है।

वो भी इंसानों जैसे दीखते है, हमारे अपनों में ही मिलते है।
मिलते है और खो जाते है, वो एकदम आम हो जाते है।

फ़िर वक्त बदलते आते है और कोहराम मचाते है,
कोई बच्चो बुधो का मान नही, कोई औरत का सम्मान नही,
उन्हें किसी मज़हब का ज्ञान नही, किसी नैतिकता का धयन नही।

ऐसे ही कुछ दानव , हम सबके भीतर पलते है,
दिन में वो सो जाते है और रात निकलते चलते है।

.....सिद्धार्थ

Tuesday, May 26, 2009

नेताजी

जीत गए हम जीत गए के नारे वो लगवाते है,
भारत के विकास की आस हमे दिलाते है।

भोली जनता, समझे सब पर बेबस ही रह जाती है,
अपने मत का प्रयोग कर, ताकत पर इठलाती है।

जनता को नही चाह उन सतरंगी सपनो की, जो नेता उसे दिखलाते है,
चिंता है उसको भूखे बच्चो की जो रोटी को चिलाते है।

किसान कहे बीजली मुझसे नज़रें क्यों चुराती है,
और मेरे सूखी किस्मत में, आने से डर जाती है।

इस धरा का यह बेटा, अपनी मेंहनत से सोना उगाता है,
और कर्जे के बोझ से मारा, भूखा ही सो जाता है।

नेता बोले सभी योजनाये अब हमारे टेबल पर है,
और देश की इकोनोमी एकदम टॉप क्लास लेवल पर है,

खुश होकर, में चिलाया, नेताजी तो भगवान् है,
तेरे मेरे, हम सब की नैया के खेवनहार है।

सपना टूटा, टूट गया दिल, जब हमने यथार्त में ख़ुद को पाया,
मेरी इक शंका को, नेता के चमचो ने बड़े प्यार से बहलाया।

चमचे बोले , तुम व्यर्थ में क्यों चिलाते हो,
नेता जी तो बाहुबली है, तुम क्यों अपना खून जलाते हो।

हमने मौके को भापते हुए, अपना मुह बंद किया,
और पड़े जो दो चार जूते, तो ख़ुद को समझो धन्य किया।

इस नेता की खातिरदारी से हमने ये महसूस किया,
की चलता है तो चलने दो कहने का समय अभी चला गया।

इस रोष को सींच कर, वृक्ष हम बना देंगे, दिवार पर लिखी लिखाई को धता हम बता देंगे,
बढेगा ये देश, इसमे कोई दो राय नही, नेताजी को पॉलिटिक्स का मतलब हम सिखा देंगे।

.... सिद्धार्थ

Wednesday, May 20, 2009

परीक्षा परिणाम

कुछ साल पहले की बात है, सोचने बैठो तो लगता है जैसे कई सदिया बीत गई हो। किस्सा उस वक्त का है जब किस्सी भी घर में आधुनिक यांत्रिकी उपकरण के नाम पर कैलकुलेटर पाया जाता था। कैलकुलेटर के बड़े भाईसाब कंप्यूटर तब किसी बड़े अफसर के केबिन की शोभा बढाया करते थे। कभी कही कंप्यूटर दिख जाता था तो आम आदमी की साँसे तेज हो जाती थी।

उस ज़माने में अगर कोई कंप्यूटर का नाम लेके कोई बात करता था तो आस पड़ोस के हलके में उसका मान चोगुना हो जाया करता था।हर मुह्हल्ले में किसी के मामा या किसी के मामा का लड़का विदेश में हुआ करता था और उस घर की और मुहले के बाकी घर एक विशेष आदर भाव के साथ देखा करते थे और मुहल्ले के अहम् फैसलों में इस घर के मुखिया द्वारा दी गई राय का खास वजन हुआ करता था।

तो ऐसे ही समय में हमने हाई स्कूल की परीक्षा पास करने की चेष्टा की। तब परीक्षा परिणाम हमारे शहर के एक शासकीय कार्यालय में घोषित हुआ करता था और इन्टरनेट नामक क्रान्ति अभी तक हमारे देश और प्रदेश को छूकर नही गुजरी थी।
जो लिस्ट उत्तीर्ण परीक्षार्थियों का नाम लिए होती थी, वो चंद खुशनसीब आंखों के अलावा कोई और नही देख पाता था और उसी लिस्ट की प्रतिलीपिया कुछ बिचोलियों के पास उपलब्ध रहती थी। प्रति परिणाम ५ रुपये। एक जगह हमे प्रथम श्रेणी में बताया गया तो दूसरी जगह हमारा रोल नम्बर नदारद बताया गया। हमारे पूरे कुनबे के हितेषी लोग बड़ी आशा लिए सभी जगह हमारा रोल नम्बर ढूंढ रहे थे। काफी दौड़ धुप के बाद जब सब आश्वस्त हो गए की हम वाकई उत्तीर्ण हो चुके है, तब सभी रिश्तेदारों ने हमे खुश होने का अवसर प्रदान किया।

आज जब कंप्यूटर पर एक क्लिक करके, परीक्षार्थी के भविष्य का फ़ैसला हो जाता है, हमे अपने परिणाम को जानने के लिए की गई जद्दो जहद याद आ जाती है।

Monday, May 18, 2009

शादी का प्रमाण पत्र

शादी तो सभी करते है, कुछ नही करते तो उनके अपने कारण होते होंगे। हमने तो की और बहुत धूम धाम से की। बैंड बाजा, खूप सारे बाराती और हर वो रस्म जो एक महाराष्ट्रियन शादी में होती है और ना सिर्फ़ महाराष्ट्रियन बाकि कई उत्तर भारतीय रस्मे भी शादी में सम्मिलित कर ली, सोचा क्यों कोई कसर रखी जाए भगवान् को खुश करने में।

अब अमूमन लोग शादी के पश्चात् घुमने जाते है, कुछ सभ्य एवं शर्मीले लोग इसे सिर्फ़ घूमना फिरना कहते है, कुछ पाश्चात्य तौर तरीकों में विश्वास रखने वाले धड़ल्ले से पूछते है की हनीमून कहाँ जहा रहे हो। तो साहब, हमे हनीमून से ज़रूरी एक काम की चिंता सता रही थी और वो थी शादी का प्रमाण पत्र बनवाने की। हमने जब पूछा की इसकी क्या अव्शयाकता है तो लोगो ने हमारी अज्ञानता पर अफ़सोस जताते हुए समझाया की आपकी शादी हुई है, ये हमे पता है, आपको पता है और उस पंडित को पता है, सरकार को क्या पता। हमे बात में दम दिखा तो हमने भी अपना पूरा दाम (जी हाँ दाम) इस प्रमाण पत्र को हासिल करने में लगा दिया।

सरकारी दफ्तर में घुसते ही, हमने लपक के बाबु से अंग्रेजी में पूछा , फ्रॉम वेयर आइ कैन गेट दा ऍप्लिकेशन फॉर्म? बाबु ने हमे अचम्भे से देखा और बिना कुछ बोले एक लिस्ट पकड़ा दी। लिस्ट में तमाम तरह के कागजात मांगे गए थे। certificate चाहिए तो ये सब लेके आइये। हम लपक के गए और पलक झपकते ही नही आ पाए क्युकी हमे वो सब कागज़ बनवाने में ४ घंटे लग गए। जब हम विजयी मुद्रा में बाबु के सामने लौटे और उसे सामने सभी कागज़ प्रस्तुत किए तो उसने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए एक बेंच की और इशारा किया और कहा बैठो अभी।

हमे लगा की बाबु हमारी पसीने से तर बतर काया को देख कर कुछ शीतल पेय पिलाना चाहते है। हमने सोचा की हम कहे की अब क्यों बैठे, अब तो बस हम certificate लेंगे और घर जायेंगे, लेकिन उनकी आँखों के इशारों के आगे हम और हमारी धर्मपत्नी कुछ न कह सके और चुपचाप बेंच पर बैठ गए।

जब आधे घंटे तक बाबु एक रजिस्टर में बिना किस्सी हाव भाव के घूरते रहे तो हमने सोचा उन्हें अपनी उपस्तिथि फ़िर याद दिलाई जाए। इस बार उन्होंने हमसे हस्ताक्षर मांग लिए और हमने सोचा की अब तो काम हुआ ही समझो। ख़ुद को भाग्यशाली समझते हुए हमने अपने बेहतरीन हस्ताक्षर कर दिए , हमारी धर्मपत्नी भी मुस्कुराते हुए हस्ताक्षर किए जा रही थी।

जैसे ही सारी ओप्चारिक्ताये पूरी हो गई, हमे दो टूक जवाब मिला की हफ्ते भर बाद आना। हमने कुछ होल हुज्जत करने की सोच उत्पन्न की लेकिन तभी एक और विवाहित जोड़ा दफ्तर में घुसा और बाबु से बोला की अब तो एक महिना हो गया , अब तो हमे certificate दे दीजिये। बाबु ने कहा की बड़े साहब शहर से बाहर गए है, हफ्ते भर बाद आइयेगा। अब हम माजरा समझ रहे थे और मन ही मन अपनी भोली धारणाओं पर हस रहे थे। हमने जेब से ५०० रुपये के दो नोट निकाले और बाबु को धीरे से टिका दिए। बाबु ने पहले तो हमे एक अपराधी की तरह संबोधित किया और अपने रहस्यमयी रजिस्टर में आँखें गदा दी, हम सहम गए, सरकारी तंत्र में इस जादुई मन्त्र का प्रयोग असफल होते देख, हमारी रही सही उम्मीद भी धूमिल होती जा रही थी की तभी हमने वो अजूबा देखा जिसकी हम कल्पना मात्र से चहक उठे।

उस असामाजिक चेहरे पर अचानक से मनुष्यता झलकने लगी और एक प्यारी सी मुस्कराहट से सरकारी दफ्तर का वो बाबु , साक्षात् परमात्मा की शक्ति लिए हुए प्रतीत हुआ।

उसने हमे और आस्तिक बन्ने की प्रेरणा देते हुए, दक्षिणा में बढोतरी की मांग की और जब हमने वक्त की अहमियत को समझाते हुए अपने आदर्शो और बटुए के साथ बेवफाई की , तो बाबु ने झट से मोहर लगा दी और फाइल बड़े साहब के लिए बढ़ा दी। उसने हमे आश्वस्त भी किया की कल आइये और अपना certificate ले जाइए। अगले दिन जब हम सर्तिफिकाते लेने पहुचे तो वो मुस्कान तो गायब थी लेकिन सामने एक और विवाहित दंपत्ति अपने प्रमाण पत्र को पाने की असफल कोशिश करते नज़र आई। खैर, इस बेईमानी से भरे कार्यालय ने हमारा काम बड़ी इमानदारी से करवाया और हमे मुद्रा की माया से अवगत करवाया।

हमारे समाज की ऐसी कई घटनाएं हमे ये सोचने पर मजबूर करती है की हम बचपन से जिस नैतिकता का पाठ पढ़ते और पढाते है , अपने इन्ही आदर्शो को हम बिना हिचकिचाए हुए अपने स्वार्थ के हवन में स्वाहा कर देते है।

कभी वक्त, कभी मजबूरी और कभी बिना किसी कारण के हम इस बुराई का हिस्सा बन जाते है।