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Thursday, May 28, 2009

भौतिक विक्षिप्तता

आतुरता है हर जीव को की दे पटक सभ्यता की नींव को,
नही किंचित ही विचलित वो, कहे ख़ुद को फ़िर भी सभ्य वो।

जंगल के असभ्य भूके शेर, कभी नही करते अपनों से बैर,
वो भी इतना अन्तर जानते है, अपनों की कीमत पहचानते है।

कुछ लोग नित नए खेल रचते है, माँ-बाप को ही वो ठगते है,
विश्वास की क्या बात करे, जब लेकर खंजर वो चलते है।

वो भी इंसानों जैसे दीखते है, हमारे अपनों में ही मिलते है।
मिलते है और खो जाते है, वो एकदम आम हो जाते है।

फ़िर वक्त बदलते आते है और कोहराम मचाते है,
कोई बच्चो बुधो का मान नही, कोई औरत का सम्मान नही,
उन्हें किसी मज़हब का ज्ञान नही, किसी नैतिकता का धयन नही।

ऐसे ही कुछ दानव , हम सबके भीतर पलते है,
दिन में वो सो जाते है और रात निकलते चलते है।

.....सिद्धार्थ

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